Sunday, March 10, 2013

तुम याद आये

आज फिर दिल दुखा है , तुम याद आये
ख्वाबों ने दिल से कुछ माँगा है , तुम याद आये
सोचा कई बार जिंदगी से  किनारा कर लूं  
तुम्हारे कुछ वादे याद आये, तुम याद आये

एक बच्चे ने खिलौने की जिद पकड़ ली जब, तुम याद आये
खो जाने  के डर से उंगली पकड़ ली जब, तुम याद आये
यूँ तो बहुत लम्बा था, मुश्किल था ज़िन्दगी का सफ़र
मैं जब भी हार गया, थक गया, तुम याद आये

एक मुल्ला ने मस्जिद मैं अज़ान दी जब, तुम याद आये
किसी ने ग़ालिब का एक शेर पढ़ा जब, तुम याद आये
तुम्हारी कथ्थई आँखों मैं, मेरी उम्र की दुआ
ये दिल सजदे मैं झुक गया जब , तुम याद आये



Monday, October 22, 2012

बहस

हवा मैं  बांध  कर  ख़याल, तेरी  जानिब  उछाला
दिल फिर एक बार, तेरी ओर , तेरी ओर चला 

दिल-ओ-दिमाग मैं बहस है, तू मेरी है भी या नहीं




Thursday, October 18, 2012

शरारतें

आंखें दौड़ पड़ती है तेरे दीदार को वक़्त-बे-वक़्त
दिमाग भी रोकने की कोशिश नहीं करता कमबख्त

दिल-ओ-दिमाग ने आखिर शरारतें सीख ही लीं तुमसे 

Thursday, October 11, 2012

मैंने भी पुछा

ठोकरें खाई, कई जख्म भी 
गम के कई कड़वे घूँट पिए 
लफ्जो को चबाया 
कई भूखी रातों तो निगल गया वो 

उम्मीद बिछा के लेटा,
तन्हाई ओड़  के सोया तमाम उम्र 
और एक दिन इसी भूख ने खा लिया उसे 

टालस्टाय के स्वर मैं मैंने भी पुछा था उसके वजूद का कारण 
जीजस मौन है  

Tuesday, October 9, 2012

डर

अटका हूँ बूँद के मानिंद जुल्फों मैं
अगर झटक दो तो न मालूम कहाँ खो जाऊं

कम्बख्त ये जुदा होने का डर ख्वाब मैं भी सताता है   

Monday, October 8, 2012

टुकड़े

कुछ लफ़्ज होटों से फ़िसले और गिर कर टूट गए फ़र्स पर 
टुकड़े-टुकड़े से होकर पड़े थे, टूटे हुए कांच की तरह 
कुछ बिखरे टुकडों मैं, शायद तुमने अपना अक्स देखा 

और जब मुड़ने लगे तो हलकी सी इक टीस सुनाई दी मुझे 
शायद लफ्जों का कोई टूटा हुआ टुकड़ा 
चुब गया था तुम्हारे पैरों मैं  

तुम्हे दर्द मैं देखा, तो रोक न पाया मैं ख़ुदको 
सभी टूटे हुए टुकड़े, अपने हाथों से समेट कर मैंने 
भर लिए अपनी आँखों मैं

और अब दिन रात जलते रहते हैं ये, \
मेरी इन खतावार आँखों मैं 

Saturday, October 6, 2012

वो

इश्क इंसान को मासूम बना देता है
कभी जुगनू कभी परियों सा बना देता है

लिखना चाहता हूँ ग़ज़ल, एक सादा कागज पे
खुद-ब -खुद हाथ इक तस्वीर बना देता है

हाथ ख़ाली हैं मेरे पास यूँ तो कुछ भी नहीं
इक तेरा साथ बस अमीर बना देता है

कमी नहीं हैं रहनुमाओं की इस मुल्क मैं पर
कैसे कैसों को ये वजीर बना देता है

न रोक पाओगे इस बार भी इस बूढ़े को
वो निहत्थों को भी शमशीर बना देता है 

Thursday, October 4, 2012

शायद

कल शब् कुछ ख्याब तापे
कुछ यादें सेंकी 

उस शाम बड़ी देर तलक
मैं एक बूड़ी छड़ी के मानिंद
सटा हुआ उस पिल्पाये से 
तुम्हारा रास्ता तकता था

बारिश मेरे वजूद को डुबो देने की ताक में थी 
एक पल को लगा मैं चुक जाऊँगा शाम भर में  
पर कोई था जो धोकनी देता था जिस्म को 
दम देता था उम्मीद को, के तुम आओगी 

मैंने देखा तभी
बारिश मैं भीगा तुम्हारा दमकता चेहरा
मानो तुमने चाँद तोड़ के उड़स लिया हो जुल्फ में 
बूंदें पेशानी से गर्दन के दरमियाँ
फिसल रहीं थी-जल रहीं थी

तुम्हे देख के ख़ुश हो रहा था मैं
मानो के जैसे कोई छोटा बच्चा
पानी मैं कागज की नाव छोड़ के खुश होता है

मैंने पुछा नहीं फिर भी तुमने बताया मसूमियत से
के तुम्हारा 'स्कूटर' ख़राब हो गया था कहीं
या फिर कुछ और कहा था मैंने ठीक से सुना नहीं
मैं तो बस ताज़ा साँसे भर रहा था अपने सीने मैं

तुम्हे पता भी न हो शायद
ऐसे कितनी ही बार मुझे जिन्दा किया है तुमने

कल शब् ऐसे ही कुछ पुरानी बातें आयी
फिर ऐसी ही कुछ यादों के साथ सोया मैं

Tuesday, October 2, 2012

समय

दिन के समय का एक बड़ा हिस्सा बेच दिया है मैंने
एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी को, सस्ते दामों पे 

शाम को जो घर लौटा 
तो पत्नी ने मुश्कुरा के माँगा, समय का अपना हिस्सा 

एक हिस्सा बच्चो को दिया 
खेला, हँसा, गुदगुदाया और चुकाया खुद को 

अब दिन ढले, वक़्त का एक छोटा टुकड़ा बाकी है मेरे पास 
फुर्शत में बैठा तो तुम्हारी कुछ शरारतें याद आईं 
तुम्हारे साथ बिताये वो खूबसूरत पल  

अफ़सोस के दिन के इस हिस्से मैं भी,  मैं मैं न रहा 
चलो आज फिर इस शाम को तुम्हारे नाम किये देता हूँ 
जियूँगा फिर किसी रोज अपने लिए 

जन्मदिन मुबारक हो !!!

Sunday, September 16, 2012

हैरान

मिलाया मुझको उससे, पहले ये एहसान किया 
मैंने दिल-जान सभी, उस पे ये कुर्बान किया  

मिल के सब खो गया, जैसे कोई सजा दी हो
इब्ने-मरियम का मैंने, क्या कोई नुक्सान किया

तपाया जिस्म, जलाये ख़त, मिटाई तस्वीरें 
तुझे भुलाने को, क्या कुछ नहीं सामान किया

है प्यास अब भी , पी चुका मैं वो आसूं तमाम 
लहूँ को सोख लिया, चाक गिरेबान किया

किसी पनघट पे बैठा,  बांसुरी बजाता है 
आज फिर उसकी बे निजाई ने हैरान किया

Saturday, September 15, 2012

याद

मैं भूलूँ भी तो कैसे, हर वक़्त तेरी याद आती है 
न जाने साँस आती है, की तेरी याद आती है

ग़ज़ल कहते हुए महफ़िल में, जब खामोश हो जाऊं 
मैं जतलाता तो नहीं हूँ, पर तेरी याद आती है 
 
मेरे अंदाज़ और इस बानगी की, सुखनवरी की  
कोई तारीफ करता है, तो तेरी याद आती है 

ये धरती अपने साये से छुपा ले चाँद को जब भी 
बहुत तड़पाता है मंजर, और तेरी याद आती है   

कोई समझाए मुझको इस जहाँ और उस जहाँ के राज़
मैं क्यूँकर मिल नहीं सकता, बस तेरी याद आती है 

हासिल

उसने हासिल किया वो ताज, जिसकी चाह थी 
यही थी मंजिल, सारी उम्र जिसकी राह थी

दो बूढ़ी आँखों ने बेटे का टेलीग्राम पढ़ा 

Friday, September 14, 2012

काम

सीने मैं भर के तमाम धुंआ
और फिर पानी के साथ भरके बेहिसाब तेज़ाब
शायद अपने आप को मिटाने की कोशिश है, दर्द की

जानता है के मिट न पायेगा इस तरह से
इससे तो तकलीफ और भी बड़ जाएगी
फिर भी एक कोशिश है, जो तुम से न हुई

बस के इतना ही कहा था मैंने
हस्पताल की उस बेड पे, जब तुम पड़ी थी दर्द मैं
कि थोड़ी थोड़ी देर को सांसे लेते रहना
अफ़सोस की मेरा इतना सा भी काम, तुमसे न हुआ
कितना जरुरी था वो
मेरे जिंदा रहने को


एक

मुझमें तेरी वाणी गूंजे, तेरी आवाज़ सुनाई दे 
जिस और तकूँ बस तू ही तू , तेरा प्रतिबिम्भ दिखाई दे
मैं अलग न हो पाया हूँ कभी, तेरे होने के होने से 
एक हो जाने की ख्वाइश का, कैसा ये रंग दिखाई दे 

है कौन अलग कर पाया भला, कस्ती को दरिया लहरों को 
हम एक हुए माने मिल गए, बेनाम हमारे चेहरों को    
तू हाथ पकड़ चल साथ मेरे जिस और भी राह दिखाई दे
दुनिया की चाह न मंजिल की, न दर्द न आह सुनाई दे    

  
 

Thursday, September 13, 2012

फिर भी

दर्द का क्या जो बयाँ करना  
क्या है नया जो कहना सुनना 

एक हिस्सा तो ये सबके पास है 
दिल का एक कोना तो सबका उदास है 

फिर ये तेरी पलकें भीग क्यों जाती हैं 
वो जो दफन यादें हैं बार बार क्यूं आती हैं  

इनकी नमी से क्या दर्द को सहलाएगा
ए नादान तू न चाहे, दिल तो फिर भी चाहेगा 



Wednesday, September 12, 2012

हमेशा

मैंने उससे कहाँ "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो",
वो हल्का सा मुस्काई और बोली "मैं तो तुम्हे कितना दर्द देती हूँ" 
"जानता हूँ, फिर भी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ" मैंने फिर कहा।

"मैं तुम्हे एक दिन छोड़ जाऊंगी" उसने याद दिलाया, 
"तुम अब भी कहाँ मेरे पास हो" मेरी आखों मैं दर्द था।

"तुम क्यूं चाहते हो मुझे" उसने पूछा,
"केवल इसलिए की मैं खूबसूरत हूँ, या इसलिए के मुझे खोने का डर सताता है तुम्हे"    
 "इसलिए की अपने आप से और तुम से कुछ वादे किये हैं" मैंने समझाया।

"मुझसे ज्यादा क्या चाहते हो किसी और को?" उसने मेरी आँखों मैं देख कर कहा,
मैंने अपने आस पास के जमा लोगो को देखा, खामोश रहा 
उसे जवाब मिल गया था।

"क्यों इतना मोह?" 
"नहीं जनता।" 
"क्यों इतना पागलपन?" 
"तुम ही बताओ।" 
    
"क्यों नहीं लगा लेती एक बार गले, मुझे मुक्ति मिल जाये?" इस बार मैंने पूछा, 
"क्या सचमुच ऐसा चाहते हो?" उसने सवाल किया और मैं चुप रहा 
नहीं मुझे तो बस तुम्हारे साथ रहना है, अन्दर से आवाज आयी।

कल रात ख्वाब मैं ज़िन्दगी से कुछ इस तरह ही मुलाकात हुई 
मैंने ज़िन्दगी से कहा "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो",
वो हल्का सा मुस्काई और बोली " मैं तो तुम्हे कितना दर्द देती हूँ"
"जानता हू, फिर भी मुझे तुम्हारे साथ रहना है"
हमेशा ।  



Monday, September 10, 2012

अक्सर

दुनिया मैं कितने लोग हैं जो तुम्हे समझ पाते हैं,
जो नहीं समझते वो तुम्हे गलत मान कर मुह फेर लेते हैं । 

शायद इसी लिए इतना पाक और रोशन होने पर भी,
तन्हाई और उदासी के अँधेरे, अक्सर तुम्हे घेर लेते हैं ।। 



Sunday, September 9, 2012

मेला


पुश्तैनी घर के मह्हल्ले की बराबर वाले हाट बाज़ार से सटे मिलिटरी मैदान मैं
अब भी मेला लगता है क्या?

बचपन मैं पापा के कंधे पे चढ़के जाता था
उचक उचक कर देखता था, हर छेय महीने पे लगता था, क्या रौनक होती थी।

घर से निकलते ही खुश हो जाता था, पता था पापा बरफ दिलाएगे,
और वो एक सैंटे से बना झुनझुना जिसमें पत्थर भरे होते थे,
जिनका शोर बहुत मीठा लगता था।

आठ आने मैं मिलता था चिड़ियों का एक जोड़ा, टीन का बना
कितना खुश होता था मैं, उन खिलोनो की दूकान पे जाता था जब
रोता भी था, पापा वो कपडे का बना खरगोश नहीं दिलाते थे जब
कहते थे अगली दफा लैगे।

नीचे बड़े भैया पापा की उगली थामे चलते थे,
बीच बीच मैं मुझसे कुछ पूछते थे,
बरफ वाले की स्टाल आते ही हाथ छुड़ा कर भाग पड़ते।
मैं बरफ हाथ में आने तक नजर गडाए रहता।

"नहीं अब ऐसा मेला नहीं लगता, एक बड़ी दवा फैक्ट्री लग गयी है वहां", मित्र ने बताया
जो अभी-अभी लोटा है वहां से, मेरे लिए मिटटी लाया है

खुशबू बताती है ये वही है, जिसपे मैंने चलना सीखा था
इसपे खेला, पला, बड़ा हुआ था,
कभी कभी खा भी लिया करता था अनजाने मैं, माँ बताती है।

भर ली मैंने अपनी जींस की जेबों मैं,
वो चुटकीभर मिटटी,
गाँव की ठंडी ताज़ी हवा, खिलोने, तितलियां, जुगनू , तारे, बरफ
जैसे सब कुछ इस मिटटी की खुशबू मैं घुल मिल गए थे
एक पल को लगा जैसा एक पूरा आसमान ले कर चल रहा था मैं अपने साथ
ये किस मेले मैं आ गया था मैं?

शंकर बक्शी ।

Thursday, May 24, 2012

एक


कितनी खूबसूरत होती ये दुनिया, गर सबका हरम एक होता  
सब  इकतरह  सर नवाते , सबका धरम एक होता 

मुझसे क्यों अलग किया मेरे जैसा था वो बिलकुल 
न  होता ये अ गर हममें से वो एक होता 

आज तनहा ही लौटा दरगह से एक पीर की 
      अय काश के उस बस्ती मैं मेरा भी मक़ा एक होता  

Tuesday, May 22, 2012

बादशाह


कहदूं जो तुम्हे  ख्वाब तो नाराज न होना
मुश्कुराया हूँ बरसों मैं, खफा आज न होना

देखा था तुम्हे परिओं के एक गाँव मै कल रात 
अब तो मेरे लिए  है जन्नत  राज न होना

इक  बादशाह सा घूमता इतरा रहा था मैं
बेशक  से था सर पे कोई भी ताज न होना 

Sunday, September 7, 2008

नन्हा पौधा



भावनाओं के अंकुर से
अकंषाओं की सिचाई से
प्रस्फुटित हुआ
एक नन्हा पौधा
अस्चर्या जनक रूप से बढ़ता हुआ
स्तब्ध रह गया मैं
अलोकिक सुन्दरता को देखकर
चाहे अनचाहे उगा था
इसलिए हर्षित हो रहा था
इस उपलब्धि पर

सहज सुंदर
सबसे अलग
रोजाना देखता था
पल-पल बढते हुये
सौंदर्य की विभिन्य मुद्राओं मैं
निखारते हुए
अनुपम छठा बिखेरते हुये

कल्पना करता था
खिलने वाले फूलों की
सपने से बुनने लगा था मैं
छूना चाहा कई बार
डर जाता था
स्पर्श से मुरझा न जाये
फूल खिले
आशा के विपरीत
काले, भद्दे, कुरूप

विस्मित हुआ और दुखी भी
सुंदर से दिखने वाले उस पौधे की
इस परिणिति पर
आँखों मैं गड़ने से लगे थे
वे बेरौनक फूल

उखाड़ फेंका
कुंठित भाव से

नादान



मनो मेरी बात
विशवास करो
विशवास करो कि मैं नादान हूँ
फिर कहते क्यों हो
यह तो दिखाई देने वाली शय है
उन्हे परिभाषा भी तो मालूम हो
जिन्हे बताओगे
वे जान पयेगै तब
अर्थ मालूम होगा जब
देखा होगा, महसूस किया होगा
फिर किसे बताओगे
अपने आप को
या फिर अपने ही जैसे किसी को
जिसे ढूंढ़ना होगा भीड़ मैं
सबसे अलग , असाधारण
उससे कहना
कि तुम नादान हो

इसे बचाना भी है मुश्किल
मुझे मालूम है
कुछ दिनों मैं
वैसे दिखने लगोगे तुम
जैसे दीखते है सब
साथ कोई हो
जो प्रेरणा दे
टोके, गलती करने पर

संपर्क करोगे
बहार निकलोगे
कैसे कैसे रंग
अन्तर हो जाएगा फिर
तुममे और उसमें
तुम्हे सायद कई मिल जायें
पर उसे मुश्किल से मिले हो तुम

अंतहीन दिशाहीन तलाश
मुश्किल से मिले हो
इसलिए मिलकर रहो
बहार मत जाना
ताकि रंग डालें लोग
सम्भव हैअपनी दुनिया बनाना
जिसमें कुछ सीमित लोग हों
सब सफ़ेद
आपस मैं एक दूसरे से कहें
हम सब नादान हैं
मुश्किल से मिले हो
इसलिए मिलकर रहो
और उनसे कहो
कि तुम नादान हो
फूलों कि तरह
बच्चो कि तरह



फर्क


फर्क है हममैं और उनमें
हम जब बोलते हैं - तब बोलतें
वे जब चुप होतें हैं
तब भी बोलते हुए से लगते है

फर्क है हममें और उनमें
हम जब चलते है तो एक भीड़ का निर्माण करतें है
वे जब चलते हैं
तो दूसरे कई लोग रुक जाते है

फर्क है हममें और उनमें
हम बात करते है - तो पहले एक भूमिका बांधते है
वे अभी कुछ बोल भी नहीं पाते
कि लोग उनकी बातों का मतलब भी जान लेते हैं

फर्क है हममें और उनमें
हम जीते हैं - क्योंकि हमें जीना है
वे जीते हैं
क्योंकि दूसरे कई लोगो को अभी जीना है

Sunday, August 17, 2008

तुम


साहस के छूटने पर
सपनो के टूटने पर
आशाओं के डूबने पर
जिन्दगी से ऊबने पर
तुम आना और आकर मुझमें
एक नई शक्ति भर जाना

मुश्किलों के आने पर
ग़म के बादल छाने पर
इच्छाओं के मरने पर
जिन्दगी से डरने पर
तुम आना, और आकर मुझमें
एक नई शक्ति भर जाना,

सांसों के घटने पर
उमीदों के हटने पर
विडंबनाओं में फसने पर
तुम आना और आकर मुझमे
एक नई शक्ति भर जाना,

सपनों के महल ढहने पर
आंसुओं के बहने पर
अपनों के मुह फेरने पर
दुखों के घेरने पर
तुम आना, और आकर मुझमें
एक नई शक्ति भर जाना,

नियति के हंसने पर
विडंबनाओं के जाल में फसने पर
इच्छाओं के मरने पर
जीवन से डरने पर
तुम आना, और आकर मुझमें
एक नई शक्ति भर जाना,

मन के चंचल होने पर
चित् में हलचल होने पर
यादों के मन में बसने पर
संस्मरणों के डसने पर
तुम आना, और आकर मुझमें
एक नई शक्ति भर जाना,


फार्मूले

चुनावों के दौरान
दौड़-दौड़ कर काम करना
भाग-भाग कर उदघाटन करना
चीख-चीख कर भाषण देना
राजनीतिजौ की राजनीती के
फार्मूले हो जाते हैं
पर जाने क्यों
चुनाव जीतने के बाद
ये सभी
लंगडे और लूले हो जाते हैं

एहसास


मैं वाह वाही के पत्तल पर
अभिमान की जीब से,
प्रसंशा की जूठन चाटता हूँ,
पर मर गया हूँ या जिंदा हूँ
देखने के लिए कभी - कभी
ख़ुद को चकोटी काटता हूँ

सड़क पे पड़ी लाश देखकर, कन्नी काट जाता हूँ
मरे हुए लोगो का भी रुपया खा जाता हूँ
बाढ, आग, भूकंप से , फायदा उठाता हूँ
जितना मिलता है, उससे ज्यादा कमाता हूँ
काले-गोरे लोगो को लाठियाँ थमाता हूँ
ख़ुद को गोरों का रक्षक, कालों का मसीहा बताता हूँ

कोट पैंट पहन कर, भीख मांगने जाता हूँ
कुर्ता धोती पहन कर साधू बन जाता है
लोगो की भीड़ में मैं, चीखता चिल्लाता हूँ
मेरे आगे कोई रोये , तो मैं नींद में खो जाता हूँ
मैं मदारी के जैसा हूँ , मजमा लगता हूँ
पर मैं खेल दिखता नहीं , ख़ुद खेल जाता हूँ
राजनीती की सतरंज में, मेरे माप दंड दोहरे हैं
मेरी बिसात में दो चार नहीं, नब्बे करोड़ मोहरे हैं

में खुशिओं के प्यासे लोगो में
आंसू से भीगी पलकों में
झूंठें सपने, आशाओं आँकाक्षाओं को बांटता हूँ
पर मर गया हूँ या जिंदा
देखने के लिए कभी-कभी
ख़ुद को चकोटी हूँ





Saturday, August 16, 2008

चार आंखें


दूर जाता पलायन कर , मन ये चंचल
रोकता है टोकता है, एक बंधन चार आंखें
आंसुओं से सनी हुई , मोम की सी बनी हुई
देखती हैं एक स्वपन को, ढूँढती है अपने पन को
चार आंखें

जगता है, भागता है, अभिरणय में और वन में
ढूंढता है अंजुली भर , सुधा जल को
जो भुला दे बन्धनों को क्रन्दनो को
निशा थक के सो गई है, नींद में यह खो गई है
छोड़ आया तोड़ आया - एक सपना चार आंखें
बंद थी दिन की थकन से
देख पी न मुझे
पर देखती थी उस समय जो
एक स्वपन को अपने पन को

सनसनाती है हवा , जो बह रही विपरीत मेरे
चीरता हूँ खोजता हूँ, मार्ग अपना, ले के सपना
याद आया थी लगी ठोकर मुझे
जब चला था मैं "दिया" घर का
दिया था न ध्यान जिसपर
टीसता है - पीसता है अब जो मन को



खुशी


खुशी आती पास मेरे
लपेटन के रूप मैं
जिसे खोलो
पाओ
वही चिरपरिचित
गमों का पुलिंदा
खुशी
मानो चपला समान
चंचल
मानो मरीचिका समान
भ्रमित करने वाली
पल-पल छलती
आकर्षित करती
दिए की लो समान
जले जिसमें
हर बार
एक अभिलाषा
दम तोड़ दे जिसमें
हर बार
एक अकांचा

लाल फूल की भांति
तोड़ो जिसे
चुभें शूल
पाना चाहता हूँ खुशी को
अविराम
निरंतर
पर जब भी मिली है
लपेटन के रूप मैं
खोलो जिसे
पाओ
वही चिरपरिचित
गमों का पुलिंदा
भेद डाले ह्रदय को
क्रूरता से
ढहा दे जो
सपनो की चार दीवारी
कांप रहा हूँ मैं
भविष्य मैं घटने वाली
किसी अनिष्ट घटना को सोचकर
डरता हूँ
आशंकित हूँ
क्योंकि आज मैं बहुत खुश हूँ -बहुत खुश



नमी



उसके पास बंजर भूमि है
जिसे वो हर रोज खोदता है
पानी नही निकलता
नमी नहीं आती
पर ख़ुद भीग जाता है

एक सपना है -
जो उसके पूर्वजों ने देखा था
एक सपना है
जिसे अब वो भी बुनता है
पर न नजाने कितनी गहराई मैं धंस गया है
जिसे उसकी, तीन पीढियां
खोदते-खोदते नहीं निकल पाई
वो यह सोचता है - और फिर खोदने लगता है
तीन पीढियां पीढियां के पसीने की सिचाई से भी
नमी नहीं आयी
पानी नहीं निकला


Thursday, August 14, 2008

ख्वाब


पलकें बंद होती हैं तो ख्वाब आते हैं
पर मैं तो खुली आँख से ख्वाब देखता हूँ
इंतज़ार है तो बस पलकें बंद होने का
ताकि ख्वाब आने भी बंद हो जायें
क्योंकि कल्पना का जाल बूनके
भावनाओं का अपहरण करके
मेरी चेतना को लूट जाते हैं
देखने मैं तो ये ख्वाब अच्छे लगते हैं
पर वास्तविकता के धरातल पर भिखर कर टूट जातें हैं।